चुनाव आयोग का ख़तरनाक सुझाव, इरादा कुछ और निशाना कहीं और है
इन सुझावों को ग़ौर से देखा समझा कीजिए। किस तरह विपक्ष के आर्थिक स्त्रोत को ख़त्म किया जा रहा है। जिन राजनीतिक दलों का हवाला दिया गया है, उनमें से कोई बड़ी या गंभीर पार्टी नहीं है मगर इन दलों के बहाने जो सुझाव दिया जा रहा है, उसके परिणाम बेहद गंभीर हो सकते हैं। अगर बीस हज़ार नगद चंदा के ज़रिए भ्रष्टाचार का खेल हो रहा है तो क्या यह खेल बीजेपी, कांग्रेस या आम आदमी पार्टी में नहीं हो रहा होगा? लेकिन जो ख़बर छपी है, उसमें बड़ी पार्टियों का हवाला नहीं दिया गया है।
ऐसा कैसे हो सकता है कि बड़े दलों में नगद चंदे का खेल नहीं हो रहा होगा? लेकिन छोटे और अनाम दलों के नाम पर असली खेल इन बड़े दलों में से बाक़ी को ख़त्म किया जा रहा है ताकि एक ही दल सर्व संसाधन गुण सम्पन्न बचा रहे।
भ्रष्टाचार और कालाधन के नाम पर चुनाव आयोग ने जो सुझाव दिए हैं, उससे राजनीति में आर्थिक असंतुलन पैदा हो जाएगा। ऐसी व्यवस्था पहले होती तो कांशीराम जैसे नेता ग़रीबों और समर्थकों से चंदा लेकर एक राजनीतिक दल खड़ा नहीं कर पाते। सत्ता में जो वर्ग हमेशा के लिए जम गया था, उसे उखाड़ कर फेंक नहीं पाते। कांशीराम को तो किसी उद्योगपति ने चंदा नहीं दिया था।
चुनाव आयोग कहता है कि 2000 रुपये से अधिक चंदा देंगे तब नाम बताना होगा। ऐसा करना पारदर्शिता के लिए ज़रूरी है। मगर यही चुनाव आयोग क्या पत्र लिखता है कि करोड़ों रुपये का जो इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीद रहा है, उसका नाम क्यों नहीं बताया जाता है? दो सौ करोड़ का बॉन्ड ख़रीद लें तो नाम गुप्त रहेगा और बीस हज़ार नगद चंदा देंगे तो नाम देना होगा ताकि बाद में आयकर विभाग छापे मार कर कमर तोड़ दे। आप इस ख़बर में पढेंगे कि आयोग का सुझाव है कि चेक से चंदा दिया जाए। आपको तुरंत लगेगा कि चेक से देने पर पता रहेगा कि कौन चंदा दे रहा है लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने वाले का नाम ही नहीं पता चलता है। क्या आप इस खेल को समझ पा रहे हैं?
चुनाव आयोग को उन नए स्त्रोतों की तरफ़ ध्यान देना चाहिए जिनके ज़रिए राजनीतिक दल बड़ा पैसा खर्च करते हैं। चुनाव के छह महीना पहले से मीडिया में कैंपेन की आँधी चलती है। इसके ज़रिए आम तौर पर एक दल के प्रति माहौल बनाया जाता है। क्या चुनाव आयोग ने कभी जानने का प्रयास किया कि चुनाव के छह महीना पहले अख़बारों और चैनलों को किस दर पर और कितने सौ करोड़ के विज्ञापन दिए जाते हैं ? चुनाव के दौरान जो राजनीतिक विज्ञापन दिए जाते हैं वे किस चैनल को, किस दर पर दिए जाते हैं, नगद दिए जाते हैं या चेक से दिए जाते हैं ? पारदर्शिता के लिए यह क्यों नहीं ज़रूरी है? अब पैसा उम्मीदवार से ज़्यादा थोक माहौल बनाने में राजनीतिक पार्टी खर्च करती हैं। इस खेल में एक ही पार्टी सबसे आगे है। उसकी कोई सीमा नहीं है। उम्मीदवारों के ख़र्चे के नाम पर बड़े सवालों और बड़ी लूट से ध्यान हटाया जा रहा है। लेख – रवीश कुमार